** ऊंचा भवन **
( बिक्रमजीत सिंघ 'जीत')
आओ अपने अंतर्मन में
ऊंचा भवन बनाएं ऐसा
माया-जाल से हो अलिप्त
हो सुंदर स्वर्ग के जैसा
धर्म की ईंटें कर्म का गारा
पानी डालें हरी नाम का
संयम सहित चिनाई करके
भरें रंग संतोष दया का
ज्ञान के हों झरोखे जिसमें
छत जैसे हो आत्मसम्मान
ख़ुशी प्यार की लगें खिड़कियाँ
फर्श नम्रता त्याग समान
अटल विश्वास के द्वार लगाएं
श्रधा सबुरी कर अंगीकार
प्रभू नाम के दीये जलाकर
करें अति-सुंदर भवन तैयार
लगन स्नेह से भवन को अब
सुंदर स्वच्छ पवित्र बनाएं
श्वास श्वास नाम जप सच्चा
अन्दर ईशवर ज्योत बसाएं
अहम् लोभ क्रोध काम और
मोह की आंधी ले इसे बचाएं
इर्षा लालच पाप झूठ सब
निकट न इसके आने पाएं
ऐसा भवन हो जिसके भीतर
भाग्यवान वो जन कहलाए
धन्य जनम हो उस प्राणी का
पद-निरबाण 'जीत' वो पाए
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