<~ जीवन एक स्वप्न ~>
( बिक्रमजीत सिंघ "जीत" )
स्वप्न भांति यह जीवन यात्रा जग के बहुरंगी मेले की
चकाचौन्ध नगरी यह दुनिया अजब प्रभू के खेले की
ईशवर की लीला है अदभुत रचा उसीने माया जाल
युग युग से चल रहा निरंतर हुए हजारों लाखों साल
तीन पढ़ाव हैं इस जीवन के बाल तरुण और वृध्पन
हो तुझमें उल्हास भरा हो मन में आनंद व स्नेह्पन
गया बचपन खेल-खेल में धार पंख जवानी उड़ गई
यह आखरी पढ़ाव भी न जाये निकल अब व्यर्थ ही
सच्ची डगर का बन तू राही कर्म शुभ करले भरपूर
मिथ्या निंदा व चोरी धोखा रह पापों से तू कोसों दूर
करले भलाई 'गर कर सके तू बुरा मूल न सोचना
पर-तन पर-धन व वस्तु पराई स्वप्न में न लोचना
वो जब भी दे जितना भी दे संतोष रखना उसी में
ईशवर में द्रिढ़ विश्वास कर सुकृत तू रहना ख़ुशी में
स्मरण करले प्रभू का और कर जगत की सेव तू
ले के दुआ हरएक की कर "जीत" जन्म सफ़ल तू
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